Additional information
Weight | 0.345 kg |
---|---|
Dimensions | 22 × 14 × 3 cm |
ISBN | 978-81-986090-4-5 |
AUTHOR | ALOK SINGH KHALAURI |
₹399.00
मानव सभ्यता की सबसे पुरानी प्रवृत्ति रही है – अनजाने और अदृश्य की कल्पना करना। लोककथाएँ, पुराण और दंतकथाएँ हमेशा उन शक्तियों से भरी रही हैं, जिन्हें हम देख नहीं सकते, मगर मानते हैं कि वे हमारे जीवन पर असर डालती हैं। Paranormal fantasy fiction का आकर्षण यही है कि यह असंभव को भी संभव सा बना देता है और पाठक को यह विश्वास दिलाता है कि परछाईयाँ केवल भ्रम नहीं, किसी गहरी सच्चाई का हिस्सा हो सकती हैं। इसमें जादू और तंत्र की रहस्यमयी दुनिया आधुनिक यथार्थ की ठोस ज़मीन से जुड़ जाती है, जिससे कल्पना और हक़ीक़त की सीमाएँ धुंधली पड़ने लगती हैं।
‘आलोक सिंह खालौरी’ का उपन्यास ‘दुर्भागा’ इसी संगम से जन्मा है। यहाँ लेखक और कहानी का परंपरागत रिश्ता टूटता है। लेखक ने एक तांत्रिक पात्र गढ़ा था – शक्तिशाली, अंधकारमय और कथा को गति देने वाला। परंतु वह पात्र धीरे-धीरे कथा की सीमाएँ तोड़कर साक्षात उसके सामने आ खड़ा होता है। केवल आता ही नहीं है, बल्कि वह कथा का नियंत्रण ही लेखक से छीन लेता है। और जैसे ही यह नियंत्रण जाता है, बाकी पात्र भी स्वच्छंद होकर अपनी-अपनी इच्छाओं के साथ मनमानी करने लगते हैं।
लेखक असहाय रह जाता है। कलम उसके हाथ में है, मगर शब्द उससे छल कर चुके हैं। जो कथा उसने बुनी थी, वही अब उसे रौंदती हुई विनाश की ओर बढ़ रही है। तांत्रिक पात्र की शक्तियाँ तर्क की सीमाओं से बाहर हैं और अन्य किरदार भी अपने भीतर दबे स्वभाव और आकांक्षाओं को मुक्त कर चुके हैं। अब लेखक केवल देख सकता है कि उसका रचा हुआ संसार उसके नियंत्रण से निकलकर एक भयावह यथार्थ में बदल रहा है।
यहीं उपन्यास की असली शक्ति है। यह केवल एक अलौकिक कहानी नहीं, बल्कि उस गहरे प्रश्न की पड़ताल भी है, जो हर रचनाकार को कभी ना कभी सताता है कि क्या हम अपने पात्रों के मालिक हैं, या वे स्वयं अपनी नियति लेकर आते हैं? दुर्भागा इसी प्रश्न को जीवित करता है और पाठक को उस भयावह क्षण तक ले जाता है, जहाँ कल्पना ही सबसे बड़ी सच्चाई बन जाती है।
Weight | 0.345 kg |
---|---|
Dimensions | 22 × 14 × 3 cm |
ISBN | 978-81-986090-4-5 |
AUTHOR | ALOK SINGH KHALAURI |
मानव सभ्यता की सबसे पुरानी प्रवृत्ति रही है – अनजाने और अदृश्य की कल्पना करना। लोककथाएँ, पुराण और दंतकथाएँ हमेशा उन शक्तियों से भरी रही हैं, जिन्हें हम देख नहीं सकते, मगर मानते हैं कि वे हमारे जीवन पर असर डालती हैं। Paranormal fantasy fiction का आकर्षण यही है कि यह असंभव को भी संभव सा बना देता है और पाठक को यह विश्वास दिलाता है कि परछाईयाँ केवल भ्रम नहीं, किसी गहरी सच्चाई का हिस्सा हो सकती हैं। इसमें जादू और तंत्र की रहस्यमयी दुनिया आधुनिक यथार्थ की ठोस ज़मीन से जुड़ जाती है, जिससे कल्पना और हक़ीक़त की सीमाएँ धुंधली पड़ने लगती हैं।
‘आलोक सिंह खालौरी’ का उपन्यास ‘दुर्भागा’ इसी संगम से जन्मा है। यहाँ लेखक और कहानी का परंपरागत रिश्ता टूटता है। लेखक ने एक तांत्रिक पात्र गढ़ा था – शक्तिशाली, अंधकारमय और कथा को गति देने वाला। परंतु वह पात्र धीरे-धीरे कथा की सीमाएँ तोड़कर साक्षात उसके सामने आ खड़ा होता है। केवल आता ही नहीं है, बल्कि वह कथा का नियंत्रण ही लेखक से छीन लेता है। और जैसे ही यह नियंत्रण जाता है, बाकी पात्र भी स्वच्छंद होकर अपनी-अपनी इच्छाओं के साथ मनमानी करने लगते हैं।
लेखक असहाय रह जाता है। कलम उसके हाथ में है, मगर शब्द उससे छल कर चुके हैं। जो कथा उसने बुनी थी, वही अब उसे रौंदती हुई विनाश की ओर बढ़ रही है। तांत्रिक पात्र की शक्तियाँ तर्क की सीमाओं से बाहर हैं और अन्य किरदार भी अपने भीतर दबे स्वभाव और आकांक्षाओं को मुक्त कर चुके हैं। अब लेखक केवल देख सकता है कि उसका रचा हुआ संसार उसके नियंत्रण से निकलकर एक भयावह यथार्थ में बदल रहा है।
यहीं उपन्यास की असली शक्ति है। यह केवल एक अलौकिक कहानी नहीं, बल्कि उस गहरे प्रश्न की पड़ताल भी है, जो हर रचनाकार को कभी ना कभी सताता है कि क्या हम अपने पात्रों के मालिक हैं, या वे स्वयं अपनी नियति लेकर आते हैं? दुर्भागा इसी प्रश्न को जीवित करता है और पाठक को उस भयावह क्षण तक ले जाता है, जहाँ कल्पना ही सबसे बड़ी सच्चाई बन जाती है।